यशराज फिल्म्स की 'दिल बोले हडि़प्पाÓ के निर्देशक अनुराग सिंह हैं। यह उनकी पहली फिल्म है। शाहिद कपूर और रानी मुखर्जी अभिनीत इस फिल्म की पृष्ठभूमि पंजाब की है। नाच, गाना और मस्ती के बीच अनुराग ने एक इमोशनल प्रेम कहानी रची है। शाहिद कपूर की पिछली फिल्म कमीने चर्चित और सफल रही है। रानी मुखर्जी का कैरियर जरूर उतार पर है।
जोश उमंग और प्रेम की 'दिल बोले हडि़प्पाÓ में रानी मुखर्जी ने वीरा की भूमिका निभाई है। गांव की वीरा के सपने बहुत बड़े हैं। वह गांव के थिएटर कंपनी में काम करती है, लेकिन तेंदुलकर और धोनी के साथ क्रिकेट खेलने के सपने देखती है। दूसरी तरफ रोहन की भूमिका निभा रहे शाहिद कपूर इंग्लैंड में एक काउंटी क्रिकेट टीम का कैप्टन है। वह भारत आता है। दोनों की मुलाकात होती है। रोहन पर जिम्मेदारी है कि वह गांव के लड़कों को लेकर क्रिकेट की टीम बनाए। वीरा उस क्रिकेट टीम में शामिल होने के लिए वीर प्रताप सिंह बन जाती है। इसके बाद जो होता है, वही 'दिल बोले हडि़प्पाÓ में है। यशराज फिल्म्स ने पंजाब का पर्दे पर इतना दोहन कर लिया है कि अब उनके सही इरादों के बावजूद फिल्म नकली और देखी हुई लगने लगती है। दिल बोले हडि़प्पा के प्रसंग और दृश्यों में बासीपन है। आम दर्शक इसके अगले दृश्य और संवाद स्वयं ही बता और बोल सकते हैं।
वीरा (रानी मुखर्जी) का सपना है कि वह सचिन और धोनी के साथ क्रिकेट खेले। अपने इस सपने की शुरुआत वह पिंड (गांव) की टीम में शामिल होकर करती है। इसके लिए उसे वीरा से वीर बनना पड़ता है। लड़के के वेश में वह टीम में शामिल हो जाती है। निर्देशक अनुराग सिंह को लगता होगा कि दर्शक इसे स्वीकार भी कर लेंगे। 30 साल पहले की फिल्मों में लड़कियों के लड़के या लड़कों के लड़कियां बनने के दृश्यों में हंसी आती थी। अब ऐसे दृश्य फूहड़ लगते हैं। दिल बोले हडि़प्पा ऐसी ही चमकदार और रंगीन फूहड़ फिल्म है।
फिल्म में रानी मुखर्जी पर पूरा फोकस है। ऐसा लगता है कि उनकी अभिनय प्रतिभा को हर कोने से दिखाने की कोशिश हो रही है। कैरिअर के ढलान पर रानी की ये कोशिशें हास्यास्पद हो गई हैं। शाहिद कपूर फिल्म में बिल्कुल नहीं जंचे हैं। अनुपम खेर ऐसी भूमिकाओं में खुद को दोहराने-तिहराने के अलावा कुछ नहीं करते।
एक खबर के अनुसार कनाडा की व्यावसायिक राजधानी में हर तरफ हडि़प्पा की गूंज सुनाई दे रही है। रानी मुखर्जी की 'दिल बोले हडि़प्पाÓ का यहां के रॉय थॉमसन हॉल में वल्र्ड प्रीमियर हुआ, जिसमें भारी संख्या में फिल्म प्रेमी पहुंचे। हॉल में मौजूद रानी के असंख्य प्रशंसक उनके आटोग्राफ लेने और उनके साथ फोटो खिंचाने के लिए बेताब दिखे।
इस मौके पर रानी ने कहा - मुझे टोरंटो के प्रशंसक बहुत अच्छे लगे। मैं थोड़ी नर्वस, उत्साहित और सम्मानित महसूस कर रही हूं। मेरा अपने प्रशंसकों के साथ भावनात्मक संबंध है। वे मेरे कठिन समय में भी मेरे साथ खड़े रहे, मुझे आशा है कि वे 'दिल बोले हडि़प्पाÓ का मजा लेंगे। 'दिल बोले हडि़प्पाÓ ऐसी पहली फिल्म है, जिसका टोरंटो में अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में प्रीमियर हुआ है।
बहरहाल फिल्म की कथा तो आप सुन चुके। मैं फिल्म के भीतर की मनोवृत्ति और बाहर की दुनिया के सच का मूल्यांकन करना चाहता हूँ। रानी मुखर्जी •ारूर वीरा से वीर बन सकती है लेकिन बाहर कोई भी लड़की यह कार्य नहीं कर सकती। वैसे खेलों की दुनिया में भी लिंग-परिवर्तन के कुछ किस्से •ारूर हुए हैं।
फिल्म का यह सवाल है कि जब लड़का क्रिकेट या अन्य अंतरराष्ट्रीय खेलों का प्रतिनिधित्व कर सकता है तो लड़की क्यों नहीं ? गांवों में ऐसी मानसिकता कब जन्म लेगी। भारतीय महिला क्रिकेट टीम बनी है। वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने जाती है। प्रश्न यह है कि कितने खिलाड़ी गांवों-कस्बों से तैयार होते हैं। भारत की वास्तविक भावभूमि में अभी भी लड़कियाँ परदेे में हैं। यह परदा पारदर्शी दिखाई देता है, परंतु है नहीं। पुरुष की जमींदारी बराबर जारी है। क्रिकेट, हॉकी, बैडमिंटन, टेनिस धनी महिलाओं के खेल बने हुए हैं। गांवों के भाठा रूपी क्रिकेट मैदान लड़कियों की पहुंच से दूर हैं। उत्तर आधुनिकता ने इन बड़े और ग्लैमर भरे खेलों को अपने बाजारी ताकत से जकड़ लिया है। महिलाओं की क्रिकेट, हॉकी, फुटबाल टीम के खिलाडिय़ों को आपने विज्ञापनों में देखा है। उनकी कोई पूछ-परख है। केवल सानिया मिर्जा जैसे एक-दो चेहरे ग्लैमर की दुनिया में छाए हुए हैं। कारण उनके पास सुंदरता भी है। अन्यथा काले-कलूटे चेहरे वाले क्रिकेट खिलाडिय़ों ने भी सुंदर सामानों को बेचने का जिम्मा उठा लिया है। कपिल देव, कांबली, युवराज, भज्जी जैसे उदाहरण हैं।
राजनीति में भी पुरुष खिलाडिय़ों को हाथों-हाथ लिया जाता है। बात यह है कि आज भी लड़कियाँ औपचारिकता के लिए खेल रही हैं। एथलेटिक्स और बैडमिंटन के कुछ अपवादों को छोड़ें तो भारत के खेल का दिल हडि़प्पा नहीं बोल रहा। इस फिल्म का भीतरी संदेश यही है। इसी कारण मैं इस कमचलाऊ फिल्म को भी सार्थक मानता हूँ। रानी मुखजी ने अद्भुत पारी खेली है। वह लड़कियों को गांवों से निकालना चाहती है। बिल्लस, खो-खो, घरगुंदिया, गोटा से और आगे क्रिकेट, हॉकी, फुटबाल आदि ग्लैमरस खेलों के लिए। वह भारत की इस नारी अस्मिता को दुनिया के सामने सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करना चाहती है। नारी जब दुर्गा, काली, सरस्वती बन सकती है। चांद पर जा सकती है। प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष बन सकती है तो खेलों पर राज क्यों नहीं कर सकती। खेलों और भारतीय नारी के जागरण का यह युग्म दिल बोले हडि़प्पा के माध्यम से गहरा संदेश देना चाहता है। इस संदेश की धड़कन को सुनना •ारूरी है। फिल्में आएंगी - चली जाएंगी। नारी अस्मिता की यह पुकार फिर दोहराई नहीं जा सकेगी।
पुरानी बातें : कला के इस मायावी आर्ट गैलरी की शुरुआत ही नारी-शक्ति के शौर्य-चित्रण से हुई है। आलमआरा की तीन नायिकाएं इस यात्रा का शंखनाद करती हैं। खेल प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जुड़ा रहा। 1934 में एक फिल्म आई थी - हंटरवाली। समीक्षक बताते हैं कि यह फिल्म 'नारी शक्ति को अवाम का सलामÓ बनकर उभरी। हंटरवाली नाडिया की घुड़सवारी की बात करें। घुड़सवारी आज खेल है। इस फिल्म में हंटरवाली घोड़े को बिजली-सी दौड़ाती है। इस दौर में चाबुकवाली, साइकिलवाली, घूंघटवाली जैसी फिल्में इसी हंटरवाली की सफलता को देखकर बनाई गई। शोले तक की हंटरवाली यात्रा ने भारतीय महिला को प्रेम के खेल में धकेलकर उसे शोभा, सुंदरता और उपभोग की वस्तु में बदल दिया। हंटरवालियां आज आइटम सांग की अदाकारा हो चुकी हैं। द्य द्य (लेखक कल्याण कॉलेज, भिलाई में हिंदी के सहायक प्राध्यापक एवं अंतरराष्ट्रीय ख्याति के साहित्यधर्मी हैं। मो. 9425358748)
जोश उमंग और प्रेम की 'दिल बोले हडि़प्पाÓ में रानी मुखर्जी ने वीरा की भूमिका निभाई है। गांव की वीरा के सपने बहुत बड़े हैं। वह गांव के थिएटर कंपनी में काम करती है, लेकिन तेंदुलकर और धोनी के साथ क्रिकेट खेलने के सपने देखती है। दूसरी तरफ रोहन की भूमिका निभा रहे शाहिद कपूर इंग्लैंड में एक काउंटी क्रिकेट टीम का कैप्टन है। वह भारत आता है। दोनों की मुलाकात होती है। रोहन पर जिम्मेदारी है कि वह गांव के लड़कों को लेकर क्रिकेट की टीम बनाए। वीरा उस क्रिकेट टीम में शामिल होने के लिए वीर प्रताप सिंह बन जाती है। इसके बाद जो होता है, वही 'दिल बोले हडि़प्पाÓ में है। यशराज फिल्म्स ने पंजाब का पर्दे पर इतना दोहन कर लिया है कि अब उनके सही इरादों के बावजूद फिल्म नकली और देखी हुई लगने लगती है। दिल बोले हडि़प्पा के प्रसंग और दृश्यों में बासीपन है। आम दर्शक इसके अगले दृश्य और संवाद स्वयं ही बता और बोल सकते हैं।
वीरा (रानी मुखर्जी) का सपना है कि वह सचिन और धोनी के साथ क्रिकेट खेले। अपने इस सपने की शुरुआत वह पिंड (गांव) की टीम में शामिल होकर करती है। इसके लिए उसे वीरा से वीर बनना पड़ता है। लड़के के वेश में वह टीम में शामिल हो जाती है। निर्देशक अनुराग सिंह को लगता होगा कि दर्शक इसे स्वीकार भी कर लेंगे। 30 साल पहले की फिल्मों में लड़कियों के लड़के या लड़कों के लड़कियां बनने के दृश्यों में हंसी आती थी। अब ऐसे दृश्य फूहड़ लगते हैं। दिल बोले हडि़प्पा ऐसी ही चमकदार और रंगीन फूहड़ फिल्म है।
फिल्म में रानी मुखर्जी पर पूरा फोकस है। ऐसा लगता है कि उनकी अभिनय प्रतिभा को हर कोने से दिखाने की कोशिश हो रही है। कैरिअर के ढलान पर रानी की ये कोशिशें हास्यास्पद हो गई हैं। शाहिद कपूर फिल्म में बिल्कुल नहीं जंचे हैं। अनुपम खेर ऐसी भूमिकाओं में खुद को दोहराने-तिहराने के अलावा कुछ नहीं करते।
एक खबर के अनुसार कनाडा की व्यावसायिक राजधानी में हर तरफ हडि़प्पा की गूंज सुनाई दे रही है। रानी मुखर्जी की 'दिल बोले हडि़प्पाÓ का यहां के रॉय थॉमसन हॉल में वल्र्ड प्रीमियर हुआ, जिसमें भारी संख्या में फिल्म प्रेमी पहुंचे। हॉल में मौजूद रानी के असंख्य प्रशंसक उनके आटोग्राफ लेने और उनके साथ फोटो खिंचाने के लिए बेताब दिखे।
इस मौके पर रानी ने कहा - मुझे टोरंटो के प्रशंसक बहुत अच्छे लगे। मैं थोड़ी नर्वस, उत्साहित और सम्मानित महसूस कर रही हूं। मेरा अपने प्रशंसकों के साथ भावनात्मक संबंध है। वे मेरे कठिन समय में भी मेरे साथ खड़े रहे, मुझे आशा है कि वे 'दिल बोले हडि़प्पाÓ का मजा लेंगे। 'दिल बोले हडि़प्पाÓ ऐसी पहली फिल्म है, जिसका टोरंटो में अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में प्रीमियर हुआ है।
बहरहाल फिल्म की कथा तो आप सुन चुके। मैं फिल्म के भीतर की मनोवृत्ति और बाहर की दुनिया के सच का मूल्यांकन करना चाहता हूँ। रानी मुखर्जी •ारूर वीरा से वीर बन सकती है लेकिन बाहर कोई भी लड़की यह कार्य नहीं कर सकती। वैसे खेलों की दुनिया में भी लिंग-परिवर्तन के कुछ किस्से •ारूर हुए हैं।
फिल्म का यह सवाल है कि जब लड़का क्रिकेट या अन्य अंतरराष्ट्रीय खेलों का प्रतिनिधित्व कर सकता है तो लड़की क्यों नहीं ? गांवों में ऐसी मानसिकता कब जन्म लेगी। भारतीय महिला क्रिकेट टीम बनी है। वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने जाती है। प्रश्न यह है कि कितने खिलाड़ी गांवों-कस्बों से तैयार होते हैं। भारत की वास्तविक भावभूमि में अभी भी लड़कियाँ परदेे में हैं। यह परदा पारदर्शी दिखाई देता है, परंतु है नहीं। पुरुष की जमींदारी बराबर जारी है। क्रिकेट, हॉकी, बैडमिंटन, टेनिस धनी महिलाओं के खेल बने हुए हैं। गांवों के भाठा रूपी क्रिकेट मैदान लड़कियों की पहुंच से दूर हैं। उत्तर आधुनिकता ने इन बड़े और ग्लैमर भरे खेलों को अपने बाजारी ताकत से जकड़ लिया है। महिलाओं की क्रिकेट, हॉकी, फुटबाल टीम के खिलाडिय़ों को आपने विज्ञापनों में देखा है। उनकी कोई पूछ-परख है। केवल सानिया मिर्जा जैसे एक-दो चेहरे ग्लैमर की दुनिया में छाए हुए हैं। कारण उनके पास सुंदरता भी है। अन्यथा काले-कलूटे चेहरे वाले क्रिकेट खिलाडिय़ों ने भी सुंदर सामानों को बेचने का जिम्मा उठा लिया है। कपिल देव, कांबली, युवराज, भज्जी जैसे उदाहरण हैं।
राजनीति में भी पुरुष खिलाडिय़ों को हाथों-हाथ लिया जाता है। बात यह है कि आज भी लड़कियाँ औपचारिकता के लिए खेल रही हैं। एथलेटिक्स और बैडमिंटन के कुछ अपवादों को छोड़ें तो भारत के खेल का दिल हडि़प्पा नहीं बोल रहा। इस फिल्म का भीतरी संदेश यही है। इसी कारण मैं इस कमचलाऊ फिल्म को भी सार्थक मानता हूँ। रानी मुखजी ने अद्भुत पारी खेली है। वह लड़कियों को गांवों से निकालना चाहती है। बिल्लस, खो-खो, घरगुंदिया, गोटा से और आगे क्रिकेट, हॉकी, फुटबाल आदि ग्लैमरस खेलों के लिए। वह भारत की इस नारी अस्मिता को दुनिया के सामने सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करना चाहती है। नारी जब दुर्गा, काली, सरस्वती बन सकती है। चांद पर जा सकती है। प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष बन सकती है तो खेलों पर राज क्यों नहीं कर सकती। खेलों और भारतीय नारी के जागरण का यह युग्म दिल बोले हडि़प्पा के माध्यम से गहरा संदेश देना चाहता है। इस संदेश की धड़कन को सुनना •ारूरी है। फिल्में आएंगी - चली जाएंगी। नारी अस्मिता की यह पुकार फिर दोहराई नहीं जा सकेगी।
पुरानी बातें : कला के इस मायावी आर्ट गैलरी की शुरुआत ही नारी-शक्ति के शौर्य-चित्रण से हुई है। आलमआरा की तीन नायिकाएं इस यात्रा का शंखनाद करती हैं। खेल प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जुड़ा रहा। 1934 में एक फिल्म आई थी - हंटरवाली। समीक्षक बताते हैं कि यह फिल्म 'नारी शक्ति को अवाम का सलामÓ बनकर उभरी। हंटरवाली नाडिया की घुड़सवारी की बात करें। घुड़सवारी आज खेल है। इस फिल्म में हंटरवाली घोड़े को बिजली-सी दौड़ाती है। इस दौर में चाबुकवाली, साइकिलवाली, घूंघटवाली जैसी फिल्में इसी हंटरवाली की सफलता को देखकर बनाई गई। शोले तक की हंटरवाली यात्रा ने भारतीय महिला को प्रेम के खेल में धकेलकर उसे शोभा, सुंदरता और उपभोग की वस्तु में बदल दिया। हंटरवालियां आज आइटम सांग की अदाकारा हो चुकी हैं। द्य द्य (लेखक कल्याण कॉलेज, भिलाई में हिंदी के सहायक प्राध्यापक एवं अंतरराष्ट्रीय ख्याति के साहित्यधर्मी हैं। मो. 9425358748)

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